इति विकास दुबे ; एक और पुलिसिया हत्या
विकास दुबे नामक कुख्यात अपराधी को पुलिस ने एनकाउंटर में मारकर एक बार फिर से ये साबित कर दिया है की जितना चाहें क़ानून और व्यवस्था और उसके शासन की दुहाई दी जाए वास्तव में होता वही है जो सरकार चाहती है. क़ानून ऐसे समय में कानून की किताबों और अदालतों के लैंडमार्क निर्णयों में ही सिमट के रह जाता है. पिछले कुछ दिनों से जिस तरह से पूरा घटना क्रम चल रहा है वो किसी बालीवुडिय फिल्म से कम नहीं है. लेकिन क्या वाकई ये इतना ही सरल और साफ़ है जितना इसे दिखाया जा रहा है? क्या हमे ये मान लेना चाहिए की ये तथा कथित एनकाउंटर वास्तव में जन आकांक्षा की अभिव्यक्ति है जैसा की बताया भी जाने लगा है? ये बहुत ही सस्ता और सरल उत्तर है की जनता ऐसे कुख्यात अपराधियों का ऐसा ही हश्र देखना चाहती है. इस बार भी एक सस्ती कहानी गढ़ी गयी है और एनकाउंटर पर सरकार की कुछ ऐसी ही घटिया प्रतिक्रिया अपेक्षित है.
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता की साधारण जनता संभवतः ऐसा चाहती हो. लेकिन क्या ये मान लिया जाए की सरकारें और उनका तंत्र जनता के चाहने मात्र से ही उन स्थापित मानदंडों को भूल जाए जो क़ानून के शासन के लिए सबसे ज़रूरी हैं? क़ानून का शासन अन्य बातों के आलावा दो बुनियादी संकल्पनाओं पर आधारित है. पहली, क़ानून के सम्मुख समानता और दूसरी, स्वेच्छाचारिता का अंत. विकास दुबे के प्रकरण में, पिछले कुछ दिनों के हालत पे नज़र डालें तो क़ानून के शासन की धज्जियाँ उड़ा दी गयी हैं. इत्तेफ़ाक क़ानून के स्थापित उसूलों पर भारी पड़ गए हैं. देश समाज की खोज-खबर रखने वाला एक औसत नागरिक भी यह समझ सकता है और जानता है की एनकाउंटर कैसे और क्यों होते हैं. विकास दुबे के मामले में भी औसत नागरिक ने ये अनुमान बहुत पहले ही लगा लिया था की तंत्र के लाड प्यार के बिगाड़े हुए इस उद्दंड बालक का हश्र क्या होने वाला है. सवाल ये है ही नहीं की उत्तर प्रदेश प्रशासन तंत्र का ये नाजायज़ प्यादा पुलिस के हाथों क्यों मारा गया क्यूंकि इस सवाल का उत्तर संभवतः तभी लिख दिया गया होगा जब ये पहली बार अपने राजनितिक आकाओं की गोद में जाकर बैठा था. वास्तव में सवाल ये है की क्या उत्तर प्रदेश सरकार और इसका तंत्र क़ानून के शासन के दायरे से बाहर आ चुके हैं? जिस समय में पूरा देश और मीडिया इस प्रकरण को देख रहा था ठीक उसी वक़्त ये एनकाउंटर सरकार के स्वेछाचारी रवैये की ही अभिव्यक्ति है. सन्देश बहुत सीधा और स्पष्ट है.
मैं फिर से इस बात को दोहरा रहा हूँ की औसत नागरिक ऐसे दुर्दांत अपराधियों के अंत की ऐसी ही कामना करता है. लेकिन मुद्दा ये है के वो ऐसी कामना क्यों करता है? हो सकता है इसलिए के उसे ये शंका हो की ऐसे अपराधियों का क़ानून कुछ बिगाड़ नहीं पायेगा या के उसे फर्क नहीं पड़ता के ऐसे अपराधी पर मुकद्दमा चले, सज़ा हो या कुछ ग्राम पीतल उसका अंत कर दे. संभव है के औसत नागरिक सरकारों और तंत्र के द्वारा सोच समझ कर फैलाई जाने वाली हताशा का शिकार हो जो उसमे समाज, राजनीति, व्यवस्था, न्याय आदि के प्रति अलगाव की स्थिति उत्पन्न करती है. ये भी संभव है की एक औसत नागरिक की उपरोक्त कामना के विषय में मैं पूरी तरह गलत हूँ. लेकिन मैं इस बात से पूरी तरह आश्वस्त हूँ की लोग जब हताश होते हैं तो उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता है के उनकी मर्यादा का हनन क़ानून के दायरे में रहकर हो या मनमाफिक ढंग से हो. ये सबसे खतरनाक स्थिति है. तो क्या हम इस स्तिथि में पहुँच चुके हैं? अगर विकास दुबे एनकाउंटर हमारे लिए एक और खबर से अधिक कुछ नहीं है तो शायद हाँ.
विकास दुबे एनकाउंटर एक भ्रष्ट और लम्पट तंत्र की घिनौनी अभिव्यक्ति है. ये जनता के प्रति संवेदन हीन होती जा रही व्यवस्था और मग़रूर मठाधीशों का आह्वान है जो दंभ के साथ ये घोषणा कर रहा है के हम जब चाहें ऐसे विकास दुबे पैदा कर सकते हैं, अपने इशारे पे चला सकते हैं, और…कहने की ज़रूरत नहीं है. क्या मारे गए आठ पुलिसकर्मियों के परिवार वाले इस बात पर जश्न मनाएं के विकास दुबे मारा गया? या के ये सोचें के उनके प्रिय कौन से राजधर्म को निभाते हुए उनसे छिन गए या के ये की अगला विकास दुबे या कोई और.. किस घर में पैदा होगा और अगली बार मातम किन पुलिसवालों के यहाँ पसरेगा?
वैसे कुछ गलियारों- कमरों से जश्न और हर्षोल्लास की निष्ठुर और धूर्त आवाजें सुनियी देने लगी हैं.
दीपक के सिंह
Advocate Delhi High Court, Deepak K Singh